क्यों हो तुम ऐसे गुमसुम, जरा तो मुस्कराया करो,
कब तक बेबसी में तुम खुद को क्यूँ जलाया करो!
हंस के बोला करो, बेझिझक मुझे भी बुलाया करो,
ये तेरा ही तो घर है, हक से आया जाया भी करो!
क्यूँ रोज रात को तलाशती हो तुम मुझे ख़्वाबों में,
तसल्ली हो जाएगी तुम्हे रूबरू मिल जाया करो!
रोज लिखता हूँ मैं तुमको कागज़ पर हर्फ़ दर हर्फ़,
बनके मुकम्मल असआर ग़ज़ल बन जाया करो!
गुजर चुके हैं अनगिनत मौसम सावन से पतझड़,
बन के बसंत तुम अब तो, जिंदगी में आया करो!
सुर बेसुर तो हो चुके, लय ताल भी अब खो चुके,
बन के पायल की झंकार, तरन्नुम बन जाया करो!
बस एक आखिरी इल्तिजा है जो तुमको इल्म रहे, _राज सोनी
हूँ मैं दरबदर, "राज" का ठिकाना बन जाया करो!
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