ये चाँद की चाँदनी भी
अटक के रह जाती है
पेडों के घने पत्तों मे|
मेरा आँगन तो जैसे
पहले अंधेरे मे था
वैसा ही आज है|
शायद मेरे ही अजिरे
की दीवारें इतनी ऊँची है
जहाँ चाँद भी बेबस है
रौशनी भरने मे|
हाँ बेबसी भी बेबस है,,,,
शायद कुछ आँगन बने
ही है अंधेरों के लिए|
जैसे कुछ देह बनी ही है
मरी आत्मा को ढोने के लिए|
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