ज़मीर
बोलना चाहता है
इन्सान मुँह खोलना चाहता है
पर खोलता नहीं,
चीख़
बाहर आना चाहती है
सभी लोगों तक जाना चाहती है
पर जाती नहीं,
आँख
रोना चाहती है
कुछ ज़ख़्म धोना चाहती है
पर धोती नहीं,
गुनाह
होते आ रहे हैं
हम क्या क्या खोते आ रहे हैं
क्यों खोते नहीं?
ओ ख़ुदा
क़यामत यही है
या अभी आना बाक़ी है?
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