न नज़्म, न ग़ज़ल, न ही ख़्याल लिखती हूँ,
मामूली इंसान हूँ साहब, सवाल लिखती हूँ।
वो टैग करते हैं, पाँच सितारा होटलों को,
मैं पानी में कुछ दानों को, दाल लिखती हूँ ।
मौक़ापरस्त कसते रहे कोड़े, जान फौलाद,
छलनी उस छाल को, मैं खाल लिखती हूँ ।
वो साल भर का जश्न मनाते हैं , लम्हों में,
मैं हर लम्हे को, मुश्किल साल लिखती हूँ ।
गुनाहों को बचपना बता, वो बरी होते रहे,
मैं अपने बचपने को भी, मलाल लिखती हूँ।
यूँ तो लिखती हूँ मुफ़लिसी की जद्दोजेहद,
वो कहते हैं मैं ख़ालिस बवाल लिखती हूँ !
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