दिल की अंगीठी में लकड़ी रुपी यादें तेरी आज भी दहक रही हैं... सोचता हूँ....ख़ाक हो कभी तो फ़ना होगी, कमबख़्त इसी इंतजार में मुद्दतों से पल-पल बस,हम ही तो राख़ हो रहे हैं!
लसलसाती हुई देह से चिपचिपाती हुई पसीने की बूंदें सांझ के धुंधलके में यदि टपके ये न सोचना कोई अन्नदाता खेतों में काम करके आ रहे हैं कोई गृहणी रोटी भी सेंक रही होती है अपने परिवार के लिए पेट की क्षुधा शांत करने के संचार के लिए
घर से दूर सुदूर तपस्यारत पुरुष व्याकुलता वश कभी-कभार भूखे सो जाते हैं जीविका की खोज में पठन पाठन के ओज में चूल्हा भी संभालते हैं तीव्र आंच सहन नहीं होता वो पुरुष जिनसे क्रोध वहन नहीं होता शीशु समान प्रतीत होते हैं पवित्र निष्कलुष सवित होते हैं