चुप्पी तोड़ो कि ये सन्नाटा खाने को दौड़ता है अब,
वक़्त की मार कह लो या ज़िंदा रहने की मजबूरियां,
ओढ़ ली जो हमने ये समाज की बंदिशों की चादर,
अब फटने को आयी है, जगह जगह से, प्रतिकार से,
सच के साथ खड़े रहने को हर पल धिक्कारती सी,
हर उस पहलू पर बोलने को प्रेरित करता है अंतस,
जिस पर नहीं बोलने देने का अधिकार रखा था समाज ने अपने पास,
चुप्पी तोड़ो कि आ गया है समय वो, कि अब न बोली तो उसी चुप्पी में गुम हो जाओगी एक दिन, बेनाम सी।
-