चिराग़ जला बुझा रहा था अंधेरा कोई,
पर रोशनी की एक चिंगारी ना मिली।
चांदनी सी चमक रही थी आशा कोई,
जीवन के अंतिम पलों में भी जीवन की दिहाड़ी ना मिली।
शाम हो गई तलाश में खोए आंखों को,
पर मंज़िल तक साथ जाने वाली एक भी सवारी ना मिली।
देखा बुझते सांसों को हवाओं से,
पर वक्त की कश्मकश में, मौत भी बिल्कुल प्यारी ना मिली।
नींद का ख्वाब पाला था जेहन में कहीं,
पर आंखों में सपनों की बेकरारी ना मिली।
चिराग़ जला बुझा रहा था अंधेरा कोई,
पर रोशनी की एक चिंगारी ना मिली।...
-