चित्तवृर्तियों के आघात सारे
रह रह वेदना में आ भर्मित हुई
पुलक रही चेतना सहज उर में
किन किन आशाओं में ये दमित हुई....
घरघराता है सदा कंठ ये
मौन भीतर ही गूंज........रहा
श्रृंखलाओं सी सिक्त पीड़ा
तकली में है घूम,,,,, मूँज रहा!
काल के कपाल से बृहद जाल से
अनुभूतियां स्वतः उष्मित हुई.....
था ना ले सका कोई संक्षेप में
तल का जर्जर विहंग सुरम्य कोना,
सुनामी सा उच्छश्रृंखल विस्फोट में
रहा बस अतीत के अवशेषों को धोना!
कल्पना के प्राण पखेरू उड़ चले,
सिसकियाँ वर्तमान में विस्मृत हुई....
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