पानी में रहकर भी निर्मोही
पत्थर में अंकुर फूटे ना,
है भ्रमित मन अचंभित सा,
क्यूँ मुझसे मोहः के बंधन छूटे ना..,
जो भी आया मरघट तक आया,
फिऱ यह जग के बंधन झूठे ना,
घोर निराशा पथ पऱ प्यासा,
क्यूँ फ़िर भी जीने की आशा छूटे ना..!
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आज अनाथालय के सैकड़ों बच्चों की जिम्मेदारी उठा रही है वो..
कल जिस बच्ची को कागज़-कलम उठाने से रोका गया था ॥-
मेरे नैनो की गलियों में एक बंजारा आया
चौबारे पर बैठी थी मुझे देखा और मुस्काया
नैन नक्स तीखे उसके मतवाली थी चाल
नैनो के झरोखे कर दिया उसने वार
दिल मे छुपी तरंगों को वीणे सा झनकाया
एक बंजारा आया.......
न हाथों में छूरी उसके न ही कोई कटार
नैन नसीले ऐसे -जैसे दो धारी तलवार
कोरे मन के यौवन पर ऋतु वसंत सा छाया
एक बंजारा आया........
मन पपीहा ढूढ़े उसको तनिक समझ न पाया
पवन वेग से जीवन मे जो कुछ पल को था आया
मन मंदिर में आकर बस गया ओ अनजाना साया
एक बंजारा आया........।
नूतन
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✍️✨चंचल मन✨✍️
इस मन का क्या, कभी याचक बन,
कभी उल्टा करे संहार। ✍️ ... ✨(१.१)
कभी सपनों को देख सजा,
उन्हें देता है दुत्कार। ✍️ ... ✨(१.२)
ये बात नई थी ये चंचल मन,
बड़ी निश्छल थी किसी उपवन में। ✍️ ... ✨(२.१)
अब थी ये भी छल कोई! पता नहीं!
पर देख लूँगा उसे दर्पण में। ✍️ ... ✨(२.२)
क्यूँ पलकें यूँ नीचे झुका ये
सबको नमन अब करने लगीं? ✍️ ... ✨(३.१)
जो रहीं न अब यहाँ शेष उसे
समझ विशेष यूँ डरने लगीं। ✍️ ... ✨(३.२)
कभी किसी की सोच में खो,
यह जाने क्या कह जाती हैं! ✍️ ...✨(४.१)
कभी यूँ फर्शों में पड़ी पड़ी
कभी रोती हैं कभी रूलाती हैं! ✍️ ...✨(४.२)
इस मन का न बनना गुलाम, नहीं तो तुम्हें रोना होगा। ✍️ ...✨(५.१)
ज़रा सोच के देना अंजाम, तभी न कुछ खोना होना। ✍️ ... ✨(५.२)-
चंचल इस मन को कौन समझाए
यादें वो धुंधली हुई कौन दिखाए
अब वो बचपन लौट कर ना आए-
तू इत्र है , तू सर्वत्र है ।
तू गुरूर है , तू गिरने को भी स्वतंत्र है ।।
तू राज है , तू जंगल की आग है ।
तू लक्ष्य है , तू राह है ।।
तू मधुर गीत है , तू उन्माद है ।
तू सूरज की आग है ,
तू चाँद की शीतल प्रकाश है ।।
तू लिबास है , तू हृदय की गहराई में बसा भाव है।
तू नोक-झोक है , तू हँसी की बौछार है ।।
तू पूरी जज़्बात है , तू अधूरी ख्वाव है ।
तू इश्क है , तू लाल 💝 है ।।-
बचपन
काश लौट आते वो पल,
कहलाते थे जब हम चंचल।
जब नन्हें से पांव टिकते ना थे,
आंखों से भेदभाव दिखते ना थे।
मनमानी थी अपनी चलती,
माफ़ थी अपनी सब गलती।
गर जो आंख हमारी नम हो जाते,
काम-काज छोड़ सब चले आते।
फिर भी सबके नज़र में हम अच्छे थे,
आखिर हम तो बच्चे, मन के सच्चे थे।
काश लौट आए वो बचपन के दिन,
गुज़र गए जो तकलीफों के बिन।
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अगर किसी के केवल कह देने से मैं बुरा हो सकता हूं, तो फ़िर किसी के कह देने से मैं अच्छा क्यूं नहीं.....
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एक कवि की कल्पना का कल अगर बन जाए तो बेहतर,
संजीदा होने में क्या है चंचल मन अगर बन जाए तो बेहतर।
माँ की आँखें न नम हों कभी न ही रुलाना तुम उसको कदाचित,
नीर माँ की आँख का गंगाजल अगर बन जाए तो बेहतर।।
-ए.के.शुक्ला(अपना है!)-