मृत्तिका-सम हूँ मैं नारी
हर रूप में,मैं ढल जाती हूँ
रौंदते हो कभी पद-तल नीचे
कभी तुम शीश झुकाते हो।
प्रेम-स्पर्श पाकर मैं
कितने रिश्तों में रच जाती हूँ
कभी माँ,बहन,बेटी होकर
कभी प्रिया बन साथ निभाती हूँ।
रिश्तों में बहु बदलाव हुए
पर प्रेम रंग नहीं बदलता है
तुम पर सब कर दूँ मैं अर्पण
फिर संपूर्ण सा लगता है।
अहं ग्रसित पुरुषत्व तुम्हारा
जब अधिकार जताने लगता है
भयांकित हृदय मेरा मत पूछो
तब कितने आँसू पीता है।
एक तुम्हारे स्पर्श के अंतर से
क्या से क्या हो जाती हूँ
कभी स्वरूप निखरता है मेरा
कभी बिखर मृत-प्राण कहलाती हूँ।
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