दुध के दाँत ही फूटे हैं गेहूँ की बाली किसान को करनी है और रखवाली धुप में तपाकर इसे कुन्दन करना है तब तपती भूमि का मुंडन करना है छाँटकर गेहूँ--भूंसा अलग करना है स्वयं का और पशु का पेट भरना है
गेहूं की खड़ी फसल में दूध के दाने भरने लगे हैं सोने का पानी चढ़ाने लगी है प्रकृति धीरे-धीरे लेगी गेहूं पूर्ण स्वर्णाकृति जैसे बच्चों के दुध के दांत निकलते हैं उसके बाद ठोस दांत उभरकर आते हैं गेहूं भी बनेगी ठोस तभी तो सकेगी पाल-पोस अन्नदाता को कुछ मिले न मिले अन्न का मोल है अनमोल प्रथम अन्न अन्नदाता के नाम वही तो करते हैं हमारी क्षुधापूर्ति का काम..
रे मेघा नहीं बरस हम अन्न को जाएंगे तरस गेहूँ अभी कटी नहीं है फसल थी बहुत सरस रे मेघा नहीं गरज अब सुन लो हमरी अरज ऋतु ऋण मानव चुका रहा विस्मृत निहार अचरज रे मेघा तनिक ठहर तनिक सुख जाए अरहर नाहीं कर तू छिन्न-भिन्न अन्नदाता की धरोहर रे मेघा पावस में आना धान की कोंपल महकाना ठुमक ठुमक कृषक वसुधा अन-धन घर भर जाना
गेहूँ के खेतों में लद गई हैं बालियाँ फसलें झुम झुमकर मार रही हैं किलकारियाँ प्रकृति सोने के पानी में रंगकर गेहूं के अंग अंग कर सौंप देगी वसुधा को अन्नदाता काटेंगे फसल वसुधा का मुंडन संस्कार होगा धरती और अन्नदाता में कितना प्यार होगा..
गेहूँ के थनों में दूध पक आया है फूट फूटकर गिर रहे हैं दाने.. दानों की ताजी गंध से चिड़ियों की भूख खेतों पर मंडराने लगी है चूहों ने गस्त लगाना शुरू कर दिया है
इससे पहले गेहूँ की मादक गंध बलाओं को आमंत्रित करे फसल को काट लिया जाए
यह न केवल रोटी का... प्रश्न है यह... गाय गोरूओं के बच्चों के ताजे भूसे का आश्वासन भी है..... ।