रोज़ पलटता हूँ सेकता हूँ,
पऱ पकते नहीँ हैं यह घाव तेरे,
रिस्ते हैं जऱा-जऱा...;
लगाता तो रोज़ हूँ,
कच्चा सा यह तेरी उम्मीद का लेप,
पऱ क़भी तू भी तो आ के देख,
बता.., औऱ कितनी देर तक यह रखने हैं,
रात की अँगीठी पे तेरे यह जो सपने हैं,
सुन..,जल ना जायें हम कहीँ,
सब्र का बचा अब बस एक ही घूँट है,
औऱ.., तेरे इंतज़ार की लौ तेज़ बहुत है..!
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