शब नहीं होती उसके बिन सहर नहीं होती शब-ए-नमिस्ताँ सी लगती है हर महफ़िल मेरी महफ़िल उसके बिन रोशन नहीं होती तीरगी-ए-शब में डूबा रहता हूँ मुझे बाद-ए-सहर अब महसूस नहीं होती वो साथ होती तो यूँ होता वो साथ होती तो ये होता वो हर शब हर सहर मेरे साथ क्यूँ नहीं होती के अब छेड़ दे वो आकर इज़हार इक़रार की बातें उसके बिन अब इस गुल में बहार नहीं होती - साकेत गर्ग