मैं गांठ हृदय का खोलूं क्या,,
चन्द नन्हीं आकांक्षाओं को,,
स्वप्न माल्य में पिरो लूं क्या...?
बिखरे हैं नेत्र मोती मौन अंधियारे में,,
आज इन अश्रुओं द्वारा दिवा में,,
मौन वेदनाओं को धो लूं क्या...?
क्षण क्षण हृदय में उभरती स्मृतियों को,,
सदैव लुप्त किया है इन्हें नेत्र त्राताओं ने,,
आज इन स्मृतियों में स्वयं को डुबों लूं क्या...?
किस क्षण तक लुप्त रखूं इन वार्ताओं को,,
कब तक मौन रहेगा पीड़ाओं का जलप्रलय,,
कहो ना! आज मैं गांठ हृदय का खोलूं क्या...?
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