झुलस सा गया है मेरा अवचेतन,
ये आधुनिक धूप न होती अब सहन।
अबोध बालपन मे खेले थे जिस संग,
उसी पीपल की ठंडी छाँव लौटा दो,
हे नगर, मुझे मेरा गाँव लौटा दो।
विचलित सा रहता है भीड़ मे भी मन,
गगनचुंबी इमारतों के मद्य मेरा अधना तन।
सपने सँजोह बहा दिये थे सभी जिस मे,
काग़ज़ की वही स्वप्निल नाव लौटा दो,
हे नगर, मुझे मेरा गाँव लौटा दो।
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