है व्यथित आज मन ये मेरा
किस ओर चला जीवन ये मेरा
कर्म लिखाकर विधाता से चली
डर डर कर गर्भ में भी मैं पली
जीवन पाते ही ड्योढ़ी में सिमटी
दो अभेद्य द्वारों की सीमा पर लड़ी
देश मेरा आज़ाद है जी , बस हवा ज़रा तंग है
कागजों पर ही लड़ी जाती यहां हर एक जंग है
देखकर दोमुहां संहिता विधाता भी दंग है
कपड़ों से इज़्ज़त, संस्कार तौली जाती
चाँद छुए तो बेशर्म कही जाती है
हाँ ये मेरा वही भारत है , जहां
नारी पूजनीय मानी जाती है
कभी वो हवा में झूलती है
कभी हवन हो जाती है
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