गूंगे खेतों के बीच तुम्हारा मिलना एकांत की उम्र पार करना रहा। बिच्छू घास का जहर उतार लिया मैंने जो चढ़ा था तुम्हारे होंठो से शरीर पर!
गोलियों से छलनी अकेलेपन के घायल सिपाही तुमसे मिलने के बाद जाना तुम बहुत बेसुरे हो तुमको पसन्द है मिलन के गीत जो बजते हैं मेरे कमरे में। एक कमरा तुमको और पसन्द है जिसकी मालकिन खारे पानी के बीच बड़ी बड़ी आँखों वाली लिख रही है स्त्रीवादी कहानियां!
ओह्ह तुम मेरा प्रेम नही मन मे दबी अभिशप्त इच्छा हो तुम कहानियां सुनो मैं सुनूँगी तुम्हारे हिस्से के गीत दर्द अब मेरा सहयात्री है मेरे होठों पर ही भी धँसे है बिच्छू घास के डंक जो चुभे थे तुम्हारा दंश निकालने में एकांत यूँ नहीं मरेगा वह अमर है
कुछ गोलियां मुझे भी लगी हैं नई भर्ती है सिपाही के तौर पर मेरी पहाड़ी सीमाओं पर। लटकी है जहाँ तख़्ती, पलायन की।
खेत अच्छे लग रहे हैं क्योंकि खेत में हल चल रहे हैं, बोनी हो रही है, अलसाये खेत जाग उठे हैं। अभी खलिहान अच्छे नहीं लगेंगे, वे सोये पड़े हैं, जब फसल कटकर खलिहान में पहुँचेगी, तब खलिहान अच्छे लगेंगे। उस समय खेत बेढंगे लगेंगे।
कविता लिखने एक गांव गया था पसीने को सुनाया लिखनी थी मुझे एक कविता हल से भी मजबूत खेत में काम करने वाले मज़दूर पर उसके कंधे को दिखाया भीषण गर्मी में ज़िक्र था फटे कपड़े का भी बिना पंखे के नीचे लिखना खेत का, फसल, बच्चे, भूख औे.. बहुत ही कठिन था पूरी नहीं सुनी उसने कविता फिर भी आख़िरी दो शब्द पर मैंने लिखी एक कविता खड़ा हो गया वह बहुत प्यारी सी कुदाल उठा कड़ी धूप में मन बहुत खुश था, लिखने लगा नरम नरम कविताएं पढ़ाना चाहता था किसी को उस गर्म कठोर खेत पर जो सुन कर देता मुझे शाबाशी दृढ़ता से थोड़ी दूर पर एक मज़दूर था उसकी पत्नी भी रोपने लगी थक कर बैठ गया था शायद उस लाल मिट्टी में अपनी पत्नी के पास बहुत सारी हरी हरी कविताएं मैं बोला- थक गए हो चलो मैं एक कविता सुनाता हूँ आराम मिलेगा कविता में मैंने चाँदी से चमकते FB/IG: BoltiKavitayein
जाना चाहता हूँ उल्टे पाँव खोए हुए हमारे गाँवों में... बट गए लोग सिमेंट कांक्रीट की बेजान दीवारों में जीते थे इक वक्त कभी खुले आसमान की पनाहों मे उजाड़ दिए खेत खलिहान शहर बसाने के कामों में... कट गए वो तरुमित्र सारे खेले थे जिनकी बाहों में... खुले थे आंगन हमारे, खुलापन भी था दिलों में... बंद हो गई भावनाओं की खिडकियां बंद हुए दरवाजों मे... घट गया दायरा अब इन बढ़ते हुए आयामों में... लगे हैं धोती वाले गांव को सूटबूट पहनाने के कामों में... खोए हुए हैं हम आज भी कीर्तन की भक्तिमयी उन रातों में... नींद चैन सब खो बैठे अब रातों के भूतों की बारातों मे.... साथ देती थी ये हवाएं भी सुनसान एकांत भरी राहो मे... जी रहे हैं अब तो हम भीडभाड वाली तनहाइयों में.... सोचता हूँ मैं भाया कहाँ गया वह गांव मेरा बसता है जो यादों में... आदत डालनी पड रही है अब जीने की इन फरियादों मे... जाना चाहता हूँ उल्टे पाँव खोए हुए हमारे गाँवों मे...