रिश्तों में कभी जंग नहीं लगती लेकिन जंग न लग जाये के डर से बारिश में भीगना ही नहीं वाली सोच से रिश्ते धूल हो जाते है दूर तक फैले रेगिस्तान की तरह जहाँ फिर कुछ नहीं निपजता फिर कितनी भी बारिश क्यूँ न हो और रिश्तों में पसरने लगती है ख़ामोशी की नागफ़नी जो बींध देती है रिश्तों के होने के मानी
रात की ख़ामोशी में ये दर्द गूँजता रहता है इनकी आवाजों से पल पल मेरा दिल टूट के बिखरता रहता है अब इसको संभालना बेहद विकट प्रतित हो रहा इस रात की गहराईयों में ये दर्द और भी गहरा हो रहा है
हर लम्हा वक्त का खाली हैं,और मैं अब सिर्फ सन्नाटे बुनती हूं ... थकी हुई गहरी रात, खामोशी से पूंछती हूं मैं क्यूं सिर्फ पतझड़ के फूलों को चुनती हूं ...?