सर्दियों की संदली आहट, वो घर की पुरानी संदूक उसमे रखे गर्म कपड़ों की गर्माहट।।। या वो छोटे हो गए या हम बड़े हो गए, या वो पुराने हो गए या हम नए हो गए।। आज भी सूरज कोहरे को चिर निकलने को मचलता है, कहां सर्दियों में कहीं भी कुछ भी बदलता है।।।
कोई रो के चला गया कल रात भींगे थे मेरे खिड़की के कांच.. कोहरे में वो दिखा नहीं थम गई आवाज! वो चीखा नहीं, आहे होंगी बेघरों की या कराहें बेबसों की, बेजुबानों की आवाज थी शायद बेसहारों की फरियाद थी।। पौ फटी... पड़ा था वो नन्हा बेजुबान निष्प्राण और वो नुक्कड़ का भिखारी भी लेटा था बेजान...