"कुरुक्षेत्र"(चतुर्थ सर्ग) स्वाभाविक रूप से कोई लड़ना नहीं चाहता,मनुष्य स्वयं मरना नहीं चाहता और न किसी को मारना चाहता है,वह तो नकली शांति को भी तोड़ना-नहीं चाहता,जहाँ तक उससे हो सके वह प्रेम और शांति को बनाए रखने का प्रयास करता है।यह शांति केवल मनुष्य को रोक पाती है,पापी-दुराचारी,राक्षसों को बंद नहीं करती।राक्षस कभी शांतिप्रिय मानव को पहचानते नहीं।वह विनयता की नीति को हमेशा कायर मानते हैं।
कोई चिंगारी दबी है मेरे सीने में गहरे कोई तिरंगा में लिपटा लाल आता है और सोया हुआ लावा भड़का जाता है कि मेरे माटी का रंग भी लाल है यारों जरा कुरुक्षेत्र की रणभूमि को तो देखो जहां गीता का श्लोक जीवित हो जाता है भारतवंशी इतिहास रहा है रणबांकुरों का इतिहास का पन्ना यशगान जिसका गाता है जहां प्रदुर्भावित वो अभिमन्यु सा वीर हुआ जहां मृत्यु शैया पर वो भीष्म सा धीर हुआ भारत है भूमि जहां भरत सिंह शावक को थाम बाहुओं में अचरज भरे खेल खेलाता है मेरे भारत की धूलि ना पाने पाये कोई और मार दहशतगर्द को अपना धर्म निभाता है कुछ तो बात है यारों इस जमीं की मिट्टी में 2 गज़ ज़मीं की लालच में मरने आततायी सीमा पार से सम्मोहित खिंचा चला आता है
ओ कृष्ण लौट कर आ जाओ कुरुक्षेत्र पुनः है सज्ज यहाँ गांडीव त्यजा अर्जुन देखो पौरुष है भीम का सुप्त यहाँ है कौन यहाँ जो देख सके सकुनी की कुटिल वो चाल अभी सब लाक्षागृह देख के अंधे हैं न बचा विदुर सा लाल अभी
है परवाह इतना कि मेरे वक़्त को तुमसे मिला रखा है दो घड़ी की बात नहीं अपने पल को तेरे नाम कर रखा है हक इतना है कि तेरे जिस लम्हें में मेरी वेटिंग लिस्ट हो हमनें कुरुक्षेत्र बना रखा है...!😒