सुनो।
मयखाने का मदिरा चखकर भी,
प्यासे लौटे हो क्या कभी।
मिलाकर नजर से नजर दिलबर की,
अकेले में टूटे हो क्या कभी?
रिवाज़ है यहाँ "रिवायत" को
सच मान लेने की।
गैरों की बात पर फिर,
अपनों से रूठे हो क्या कभी?
थक गये लब मजलिस में,
गैरों की मुस्कुराते-मुस्कुराते।
पर सामने "अपनों" के, एहसासों के जायज़ रंग
तुम उकेरे हो क्या कभी?
बीतता उम्र का हर पड़ाव,
"दिखावे" का रंग गहरा करता रहा।
चलो बताओ, "वास्तविक" आईने के सामने भी,
तुम अब होते हो क्या कभी?
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