आजकल कुछ रिश्ते यूं उलझ जातें हैं,
जैसे पतंग के मांझे उलझे हों।
बेवजह ही दिलो में यूं दरार पड़ जाते हैं,
जैसे मिट्टी के बर्तन टूटे हों।
संभालते-संभालते रिश्तों के मायने,
कुछ यूं बदल जाते हैं,
जैसे हकीकत में जिए हुए, हर लम्हे झूठे हों।
बसी बसाई बस्ती भी कुछ यूं उजर जाती है।
जैसे किसी नासमझ तुफां ने,
बेसहारा परिंदों के घर लूटे हों।
आजकल कुछ रिश्ते यूं उलझ जातें हैं,
जैसे पतंग के मांझे उलझे हों।............
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