कितनी बार छोड़ जाओगी?
मन पहले भी था गुलजार, होता अभी भी है इंतेज़ार।
काटे नहीं कटते ये लम्हें बेजार।
उलझा के खुद को यूं, उलझन कब तक सुलझाओगी?
कितनी बार छोड़ जाओगी?
मर्द हूं मर्यादा भी हूं जानता, रूढ़ हूं पर रूढ़िवादिता नहीं मानता।
जकड़ के खुद को इन रूढ़ियों में,
मर्यादित होना तुम मुझे सिखाओगी?
कितनी बार छोड़ जाओगी?
न कोई पराया न कोई है अपना, ये तो है बस एक कोरी कल्पना।
जो थाम ले हांथ असीम वेदनाओं में,
बस वही होता है सच्चा अपना।
बिसरा के यूं इस अपने को, सुकून भरी नींद सो पाओगी?
कितनी बार छोड़ जाओगी??
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