उम्मीदों के अर्श पर,
यकीन की परवाज़ भरकर,
बेख़ौफ़,बेपरवाह..तमाम एहसासों से लबरेज़,
ख़ुशियों के बसेरे की तलाश में,
बहुत दूर निकल गई ...
और फिर अचानक.. 'मै डूब गई..'
लेकिन ये कैसे हो सकता है?
मैं डूब कैसे सकती हूं?
क्योंकि...
वो अर्श नहीं,दरिया-ए-हक़ीकत था,
जिसमें झलकते अक्श को,अर्श समझकर,
मैं जिंदगी के सफ़र पर निकल पड़ी थी..
न जाने किस वहम ने,आँखों पर परदा डाल रखा था,
एतेबार के पंख फड़फड़ा रहे थे,
वो उड़ना चाहते थे,जिंदगी जीना चाहते थे,
मगर दरिया ने अपने आगोश में लेकर,
उन छटपटाती हुई ख़्वाहिशों को,खा़मोश कर दिया..
हर एहसास फूट-फूट कर रो रहे थे,
पर बहते आँसुओं को न कोई देख पाया,न समझ पाया..
सारी उम्मीदे उसी दरिया में मिलकर खारी हो गई...
और पीछे छोड़ गई मीठी सी कसक..
कसक अपनेपन की..
कसक यादों की..
कसक....मंज़िलों को पाने की....🌿
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