कल.. क्या ख़ूबसूरत.. हम रात गुजारे
ख्वाबों के शयन पे था मैं.. प्रिय साथ तुम्हारे,
थे कल्पनाओं की चादर पे एहसास सब नग्न
उफ़्फ़..बड़ती सी वो धड़कनों की गति..
औऱ साँसें वो मद्धम-मद्धम,
जिस्म पे तुम्हारे चुंबन से बनते वो कोमल से छल्ले
तुम्हारे स्पर्श की तपस में सूखते जिस्म के दो पल्ले,
थे होंठ से होंठ.. बाहों से बाहें लिपटी
मिटती तृष्णाओं की वो असीम सी तृप्ति,
आँख खुली तो.. अंतहीन खेद था
मुहब्बत का यथार्थ तो प्रिय..
अब भी अभेद्य था!!
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