शहर के उस शोर में,
जहाँ न सुनाई देता
पंछियों का मौन,
न पत्तों की सरसराहट,
और न ही सुनाई देते
आंखो के लफ़्ज़,
वहीं एक छोटी सी कविता
चली अपना गीत सुनाने,
कुछ बताना चाहती थी,
शायद कुछ जताना चाहती थी,
पर वहीं रॉड क्रॉस करते हुए,
फिल्मी गाने बजाती हुई एक
मॉडर्न गाड़ी आई और...
इस शोर में कहाँ सुनता
कोई कविता की आह!
अच्छा ही तो हुआ...
वहीं कविता जूझती रही,
लहू लुहान, बेहाल,
एक कोने में
बस एक आस लिए शायद
कि कोई सुन ले
आखिरी बार...
पर क्या...?
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