रिश्तों को निभाते-निभाते थक जातें हैं हम
रिश्तों को बचाते-बचाते, अपनों को मनाते-मनाते
बहुत कुछ सह जातें हैं हम
जबाब देना भी आता है, बोलते-बोलते रुक जाते हैं हम
अपने फर्ज और संस्कारों के आगे झुक जाते हैं हम
अपने प्यार और बड़ों के सम्मान के आगे चुप हो जाते हैं हम
हाँ ये सच है...
अपनो के लिए कमजोर पड़ जाते हैं हम
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