ख़र्च एक जमा पूंजी है, जो कर्ज में डूबो देता है
जितना भी कमा लोगे तुम, मन में शंका रहता है
नहीं होता जरूरतें पूरा, तो सवाल उभर जाता है
छोटी- छोटी ख्वाहिशें भी दाव में निखर जाता है
संतोषजनक नहीं मिलता है, जितना भी कमाइए
फरमाइश कहां पूरी होती, कहते सिर्फ फरमाइए
उलझनें लगी है कतार में, दिक्कतें है हज़ार यहां
मुश्किलें की घड़ी में, नहीं बचता है व्यापार यहां
धो बैठते हाथ से अपने, जो इकट्ठा पूंजी रखते है
जो बच्चों के जीवन में, पढ़ाई पर खर्च करते हैं
ख़र्च एक जमा पूंजी है, जो कर्ज में डूबो देता है
जितना भी कमा लोगे तुम, मन में शंका रहता है
-