उसकी "ख्वाहिशो" की तो कोई "इंतिहा" ही नहीं थी,
वो ऊंचे से ऊंचे "मकामों" पर बढ़ता गया,
"लाशों" की "सीढ़ियों" पर चढ़ता गया,
"खुदा कहलाने" का शौक था जिसे,
"मरघट का मसीहा" बन के रह गया,
तुम "पत्थर की कब्रें" बनाना बंद करो,
वो "मंच" समझ कर चढ़ जाएगा,
फिर शुरू कर देगा "भाषण" ये सोच कर,
कि कोई न कोई "मुर्दा" जरूर सुनने आएगा,
जिसने दिन रात बस "जहर" घोला हो हवाओं में,
क्यों "उम्मीद" करते हो वो तुम्हारे लिए "ऑक्सीजन" लाएगा,
"शमशानों, कब्रिस्तानों" में में कंपटीशन कराने वाला,
क्या खाक तुम्हारे लिए "अस्पताल" बनबाएगा,
ऐसा ना समझो तुमसे उसे "मोहब्बत" नहीं,
या तुम्हारे "जिंदा" रहने से उसे दिलचस्पी नहीं,
बस उसे कुछ कहो मत सुनते रहो,
देख लेना मियां, "जिंदों" की तो क्या ही कहो,
बहुत जल्द वो "मुर्दों "से भी वोट डालबाएगा..!!!!
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