खिन्नता कभी-कभी
किसी दूसरे से नहीं,
अपने आप से हो जाती है।।
ये मन उलझ-सा जाता है,
विचारों के अंर्तद्वंद्व में।।
ऐसा लगता है,
सबकुछ समझकर भी ये हृदय
अनजान बनना चाहता है,
इस दुनिया की हर वस्तु
( जीव और निर्जीव )
से दूर किसी एकांत स्थान में
आंतरिक शान्ति की तलाश में
निकल जाना चाहता है।।
जहाँ ना कोई प्रश्न करे,
और ना ही कोई उत्तर देना पड़े।।
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