अपनों के ही उलहाने
तीरों से चलते सीने पर
जब हम खरा उतरने की
कोशिश करते अपने उसूलों पर...!
माना उनके एहसानों का
कर्ज़, हमारी रूह देह पर
इसलिए स्व-इच्छाओं की
आहूति दी उनके फ़ैसलों पर...!
नहीं भटके राहों से कभी
अटल, सिद्धांतों की कसौटी पर
मगर अपने ही साथ छोड़ देते
कड़े इम्तिहान के दौर पर...!
मासूम ख़्वाबों को पाला और
जीने का सोचा, ख़ुद की हसरतों पर
मगर क़िस्मत को कहा था मंज़ूर
होना पड़ा फ़ना अपनों की अकड़ पर...!
और न रही कोई उम्मीद
ज़िन्दगी के इस दोराहे पर
ख़ुद जीने की वज़ह ढूँढ़ रहे
अपनों की भीड़ में अपने वजूद पर...!
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