सुनो, कहते हैं प्रेम अलिखा हो अनकहा हो तो भी दिख ही जाता है। पता नहीं तुम्हें ही क्यों नहीं दिखता ।
मैं भी अजीब हूं बाँधती रहती हूं उम्मीदों की एक डोर क्षितिज के इस छोर से उस छोर तक कि किसी दिन तो दिखेगा तुम्हें मेरा प्रेम ,जो सहेजती हूं, संभालती हूं ,कभी धूप दिखाती हूं, कभी हवा कि मुर्झा न जाए ।सीचती रहती हूं अपने शब्दों से उसे ठूठ पड़ते इश्क के पेड़ को की किसी दिन तो ठहरोगे तुम किसी एक शाम यूं ही , मेरे शब्दों के छांव तले और फिर उस दिन सारी तनहाइयां सूख कर गिर जाएंगी और भर देगी उसे नए कोपलों से। सुनो ये जो सामने तारा देख रहे होना यह मेरी आंखों से निकला उम्मीद का तारा है जो रोज आसमान से चिपक जाता है तुम्हारी खोज में ।बस इतना करना के इसके टूटने से पहले आ जाना और हां मैंने इस तारे का नाम भी अपने नाम पर रखा है। मेरा नाम तो याद है ना तुम्हे...????
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