"आत्मसम्मान"
अपने वजूद की पहचान तेरी पहचान से,मिटा नही सकती,
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक तेरी हाँ में हाँ,मैं मिला नही सकती..!
मेरा भी मन है जीऊं मैं भी अपनी मर्जी के मुताबिक..
तेरी बंदिशों में जिंदगी अपनी, मैं बिता नही सकती..!
जो दे ना सके इज्जत मुझे, मैं प्यार उस पर लुटाऊं कैसे..
मन को जो भाए नही,मैं दिल उससे मिला नही सकती..!
काम मैं भी करती हूँ, टूटता है बदन मेरा भी...
हर रात तेरी सेज पर खुदको,मैं बिछा नही सकती..!
अपनों की खुशी के लिए करती रही समझौते मैं ऊम्र भर,
पर ये ना समझ कि तेरे अहंकार को मैं हिला नही सकती.!
घोटा है गला कदम-कदम पर "सांझ",अपनी ख्वाईशो का मैंने...
पर अपने आत्मसम्मान को अब जिंदा तो,मैं जला नही सकती.!
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