नज़्म-दर्द
बहुत तख़लीफ़ होती है,
हिज़्र-ओ-फ़िराक़ जीने में,
दर्द ही लिये मैंने
दर्द ही लिखे मैंने
दर्द के तस्सबुर में
दर्द ही सहे मैंने,
दर्द में सुकूं गजब है,
दर्द भी कुछ बे-अदब है,
दर्द जो समझता है,
शख्स वो फरिश्ता है,
दर्द जो मुक़म्मल हो,
दर्द भी फिर बिकता है,
अब ख़्याल-ए-यार में
दर्द ही तो दिखता है
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