सुनो, तुम वैराग्य हो...
तुम सांत हो, तुम सौम्य हो,
तुम दियों की जलती - बूझती लौ में हो...
जहां मनुष्य कभी पहुंचा ही नहीं,
तुम विराजमान समुद्र की तह में हो।
मधुर तुम चिड़ियों की चहचहाहट सी,
मासूम बच्चों की ज़िद सी हो...
अपनों के लिए तुम आसमान सी,
जमीं पर तुम ही छितिज़ सी हो।
वायु में फैली नमी तुम हो,
पहली बारिश में तपती जमीं तुम हो...
आसमां का तुम अंश हो,
मिट्टी के तुम वंश हो।
समा की तुम सांझ सी।।
नए दिनकर की तुम आश हो।
वेदों का तुम व्यास सी,
अपने शिव का सम्पूर्ण कैलाश हो।
तुम अना, तुम जननी हो...
तुम स्त्री हो, तुम ख़ुद के हाथों का परिकल्प हो।
तुम्हे ज्ञात हो तुम अल्प हो,
सृजन का तुम संकल्प हो...
मोम सी पिघल रही कुछ पल के प्रकाश को,
स्मरण हो तुम्हे तुम मसाल हो...
भोर कब का ढल गया तुम ढलती शाम हो,
साथ किसी के पूर्ण मगर अधूरा नाम हो
शिव ही अपने आराध्य है,
तुम महाकाल का राग हो...
उलझनें महज़ यहां नाम मात्र की होती
परेशानियों का तुम ख़ुद ही समाधान हो।
बेटी, बहन, पत्नी फिर मां...
जीवन की अदाकरियों में अरिहंत हो
वो लकड़ी जो है खूब जली,
जिसकी राख़ भी ज्वलंत हो...
वो आग भला फ़िर क्या बूझे
वैराग्य जिसका अंत हो...।
-