बंदों के गले ये जो ज़िबा करने चले हैं,
रूठे ख़ुदा को और ख़फ़ा करने चले हैं,
मज़हब के नाम पर भी गुनाह करने चले हैं,
नासूर हैं जो ख़ुद, वो दवा करने चले हैं।
आमाल नीच हों तो ख़ुदा कैसे पाएंगे,
दुनिया से, दीन से भी औ' जन्नत से जाएंगे।
ज़िल्लत नसीब में ये ख़ुदा ने ही लिखी है,
रब की नाराज़गी है, जो इनको न दिखी है।
अल्लाह ख़िला रहा, पिला रहा, जिला रहा है,
उसको भला किसी से कभी भी गिला रहा है?
ख़ूँरेज़ हों जो ख़ुद वो दीन क्या बचाएँगे,
इंसानियत मज़ीद ये नीचे गिराएँगे!
ऐसे ख़ुदा परस्त से ख़ुदा ही बचाए
दुनिया पे नफ़रतों कभी आँच न आए।
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