कालपट पे क्रोध है जो आंखों में भरा हुआ,
साधना में लीन हूं तो पर्वत सा खड़ा हुआ।
वाणी ऐसी बोलूं ना जो घात कोई कर सका,
श्रृष्टि का निधान है के मोह से कोई बच सका।
पी रहा हूं विष यहां में भी तिरस्कार का,
आस से जो जुड़ा भोगी है तो बस स्वार्थ का।
छल कपट से दूर में भक्त भोलेनाथ का,
अपमान में हूं खोज रहा बल तेरे वरदान का।।
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