# "दिल के दर्द को समझते नहीं, मुँह की बातें सब जानें,
गुनहगार हूँ भले ही बद्दुआ दें या मुझको कोई न पहचाने!
ग़र हक़ीम हों दिल के कोई यहाँ, दूर ही रहें तो बेहतर है,
डूबकर खो जाता है मेरा अक़्स, चाहे वो जानें या न जानें!
उनकी पलकें जब खुलीं सुबह, दरवाज़े पर मेरे शोर हुआ,
गजरे में लगे उन फूलों की, ख़ुश्बू को शायद न पहचानें!
यादें उनकी आईना हैं, उसमें तलाशता हूँ अपना चेहरा,
मेरे रूह में है बसेरा उनका, अब चाहे वो जानें या न जानें!
शाम न जाने क्या बात हुई, दिल का जर्रा-जर्रा महक रहा,
सरहद, ख़ून, किताबें, मंज़िल, अब शायद वो न पहचानें!
मंदिर-मस्जिद के सदक़े गुज़रे, अल्लाह-ईश्वर का करम हुआ,
माँ और मौसी के फ़र्क को, अब शायद हम न जानें..!"¥
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