QUOTES ON #अस्मत

#अस्मत quotes

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4 JAN 2019 AT 17:03

रक्तबीज से पैदा हो रहे हैं बलात्कारी
ना जाने किस वहशी का क़तरा गिरा है

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10 MAR 2019 AT 17:07

खामोशी पसरी हुई थी आँखों में, एक कोहरा काजल बिखरा गया,
साफ सादे से उसके आँचल पर, रंग कीचड़ का जैसे लगा गया,

घनी जुल्फें पकड़कर घसीटा, घोंट दी आवाज उसकी गले में,
कुचल अस्मत अपने पैरों तले, झूठी मर्दानगी अपनी जता गया,

देखती रही छलनी होता बदन, लुढ़कता हुआ दर्द गालों से होकर,
हंसी चाँद पर अचानक ही जैसे, अमावस का साया लहरा गया,

घुट रही थी सांसें दबी चीख में, पीड़ा भी चीत्कार कर उठी थी,
मरोड़ नाज़ुक कलाइयों पर, बल बाजुओं का जैसे आज़मा गया,

इक सवाल ज़हन में कौंधता है, जब सुनती हूँ तेरी रोज़ नई हरकतें,
आम औरत तुझे क्यूं न भाई, जिसे फिर इक निर्भया तू बना गया,

सुंदरता अभिशाप हो गई या फिर, तेरी हवस भूख से ज्यादा बढ़ गई,
मर्द तुझे भी औरत ने ही जना था, फिर कैसी हैवानियत तू दिखा गया !

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6 FEB 2019 AT 18:00

लुटी हुई अस्मत से तुम उसका हाल पूछते हो,
ज़िंदा लाश को अब हर अहसास बुरा लगता है !

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17 SEP 2020 AT 13:45

आँखों के सपनों का, कह दो ख़्याल कौन करता है,

तुम जब मेरे अपने थे, फ़िर अस्मत पे सवाल कौन करता है.........

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6 DEC 2021 AT 17:17

गुब्बारे बेंच लेगा अस्मत नहीं बेंचता
वो गरीब है सो किस्मत नहीं बेंचता

चल सकते हो बंद कर आँखें संग मेरे
बेंच दूं मैं सबकुछ उल्फ़त नहीं बेंचता

चले आना मिलने कहीं मर जाऊं मैं
ये वक्त है कभी मोहलत नहीं बेंचता

बेगैरत से लोग बेच देते हैं अमानतें
जिसे परवाह है वो विरासत नहीं बेंचता

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7 MAR 2021 AT 5:31

# 08-03-2021 # काव्य कुसुम # परिवेश #
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रक्षक ही भक्षक बन बैठे हैं अब तो बाड़ खेत को खा रही है ।

वहशीपन में लुटती अस्मत अबलाओं की जान जा रही है ।

कैसा परिवेश बना देश में अब तो ज़ुल्मों की शहनाई गूँज रही -

शर्मसार मानवता शर्मिंदा हम अब हमको शर्म आ रही है ।
************ गुड मार्निग *************

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27 JUN 2019 AT 14:57

माना क़िस्मत में नहीं वो अस्मत...!
मगर राह में मिले
उस ख़ूबसूरत मुसाफ़िर के साथ
क्यों न कुछ पल,
हँसी खुशी और प्यार से गुजारे...!
तो ताउम्र का तन्हा सफ़र
ख़ुशनुमा यादों के सहारे
सुकूँ से कट सके...!

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22 SEP 2019 AT 20:38

अगर हर बेटे को जीजाबाई सी माँ मिल जाए,
तो यकीनन हर बेटी की अस्मत बच जाए।

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20 SEP 2019 AT 15:47

शहर को .. डर नहीं लगता
अपने उजड़ने का
वो तमाम तरह के विनाश का
साक्षी जो रहा होता है !
..
गांव को भी डर नहीं लगता
कि लोग उसे छोड़ जाएंगे
चिंता उसको .. ये होने लगी है
कि अब शहर .. गांव को आने लगा है !

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11 FEB 2019 AT 16:27

अस्मत ख़ाक जो अस्मिता में...!
लोकलाज, शर्म हया कहाँ बाक़ी...?
बस सब,
स्याह...स्याह...!

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