खामोशी पसरी हुई थी आँखों में, एक कोहरा काजल बिखरा गया,
साफ सादे से उसके आँचल पर, रंग कीचड़ का जैसे लगा गया,
घनी जुल्फें पकड़कर घसीटा, घोंट दी आवाज उसकी गले में,
कुचल अस्मत अपने पैरों तले, झूठी मर्दानगी अपनी जता गया,
देखती रही छलनी होता बदन, लुढ़कता हुआ दर्द गालों से होकर,
हंसी चाँद पर अचानक ही जैसे, अमावस का साया लहरा गया,
घुट रही थी सांसें दबी चीख में, पीड़ा भी चीत्कार कर उठी थी,
मरोड़ नाज़ुक कलाइयों पर, बल बाजुओं का जैसे आज़मा गया,
इक सवाल ज़हन में कौंधता है, जब सुनती हूँ तेरी रोज़ नई हरकतें,
आम औरत तुझे क्यूं न भाई, जिसे फिर इक निर्भया तू बना गया,
सुंदरता अभिशाप हो गई या फिर, तेरी हवस भूख से ज्यादा बढ़ गई,
मर्द तुझे भी औरत ने ही जना था, फिर कैसी हैवानियत तू दिखा गया !
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