'सोना'... बिल्कुल 'सोने' जैसा है, सोने में... खोने जैसा, कुछ है ही नहीं, सो कर... सिर्फ पाया जा सकता है, और,, जब... 'पा लिया' तो उसमें, खोने... जैसा कुछ... बचता ही नहीं।
ये नींदों की बगावत भी मुझे अच्छी नहीं लगती! देखती हूं ख्वाब मगर वो अब मुझे सच्ची नहीं लगती! कैसे होंगे मुक्कवल ख्वाब सारे?बता तू ही मेरे मौला! स्वस्थ रहने के लिए नींद भी तो जरूरी होती है! माना लाख कह दे लोग ख्वाब खुली आंखों से देखो! पर ज्यों नींद ही रूठे भला,तो कैसे ख्वाब सच होवें?
कभी आँखें खोलती हूँ तो कभी आँखों को विराम दे देती हूँ सारी रजनी अँधकार में है छाई फक्त नींद नहीं आई
अदभूत ध्वनियां आती हैं एकाएक भौचक्का रह जाती हूँ करवटे बदलते -बदलते आए जा रही हैं देह तोड़ अंगड़ाई फक्त नींद नहीं आई
सूं -सूं की आती आवाज कभी -कभी तेज कभी -कभी मध्यम कभी -कभी भयग्रस्त कभी -कभी सरल इसी तरह गुजर गई रात सारी सुबह के तेज की रौशनी है छाई फक्त नींद नहीं आई।।
मुझे नींद नहीं आती अब रातों में.... अक्सर उलझ जाती हूँ तेरे बातों में..... तुम कहीं नहीं हो मुझे पता हैं फिर भी न जाने क्यों अक्सर उलझ जाती हूँ तेरे बातों में..... लगता हैं तुम हो आसपास कहीं... बातों को सुन कर मेरी ठहाके लगाकर हँस रहे हो कहीं बिना कुछ बोले बड़ी खामोशी से तुमसे घंटो बातें कर लेती हूँ मैं आजकल... मुझे नींद नहीं आती अब रातों में.... अक्सर उलझ जाती हुँ तेरे बातों में.....