सुर्ख़ लाल लबो से ।
खून टपकता हुआ।
हाथों से ।
अपना आंचल संभालती हुई।
अंधेरे सन्नाटें में जोर से चीख रही थी वो।
मत करो मेरी अश्मिता को खंडित।
ये कैसी है तुम्हारी महिमा मंडित?
रात के सन्नाटों में क्यों मेरी रूह को ज़ख्मी करते हो?
दिन के उजाले में एकदम सीधे सच्चे बन कर फिरते हो।
दिन के उजाले में देवी समझकर स्त्री की पूजा करते हो।
रात के सन्नाटें में क्यों मातृ स्वरूपा स्त्री को कुचला करते हो?
एकटक देखते हुए ।
एक ही सांस में ऐसे असंख्य सवाल पूछ बैठती है,वो।
जैसे कह रही हो ।
मुझे ऐसे बर्बाद तो ना होने दो।
मुझे मेरे हिस्से का थोड़ा सम्मान तो दे दो।
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