एक खुली किताब की तरह हम उनकी जिन्दगी में उतर गए।
पर उनका इरादा उस किताब को पढ़ने का नही,
बल्कि बदलने का था।
कुछ पन्ने उनहोने जला दिए,
कुछ यूँही फैंक दिए,
अौर एक अधूरी किताब की तरह हमें छोड़ गए।
बरसों बीत गए हैं उस बात को,
पर आज भी कुछ पन्ने हम ढूँढ रहें हैं,
कुछ अधूरे पन्ने दोबारा लिख रहें हैं,
बस! उस अधूरी किताब को पूरा करने की कोशिश कर रहें हैं।
क्या कहें गालिब, उनका असर ही कुछ ऐसा था।
अाज वो होते, तो मिलवाते जरूर आपसे।
- जतिन
-