लिखी हुई चीज़ तो बेजान सी पड़ी थी , स्याही से गीले कागज़ पर ।
असल कविता तो वो थी , जिसकी स्याही नज़रो को भीगा गई , और रुमाल पर मेंरे काले धब्बों को छोड़ गई ।।
तुम्हारी नज़र उन हरे-भरे पत्तो की पैदावार तक ही सीमित रहीं ।
इसलिए ये देख ही न पाए की कदमों तले एक सुखा पत्ता आ गया हैं ।
नहीं तो रोंदने से पहले उस हसीन कविता की करारी सी आवाज़ सुन पाते ।।
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