बाल विवाह : - " एक सामाजिक कुप्रथा "
छीन के मेरा बचपन , रिश्तो की जंजीरों में बांध गये..
कुचल के मेरे हर अरमान , अभिशाप की मेहंदी लगा गये..
धूँ-धूँ कर जल रही ये बचपन , मंडप के पवित्र अग्नि में ..
साक्षी रहेगी ये काली रात , किसी गैर की बनी संगिनी में ..
आखिर उठ पड़ी ये डोली , बचपन के जनाजे को कंधे लिए ..
घुटने लगी मेरी हर एक सांस , घुंघट रूपी फंदे लिए ..
मलिन हो पड़ी है ये पीली हथेली , रसोई की काली राख में ..
टूट रहे हैं कुछ अनकहे ख्वाब , ख्वाहिशों से भरी आंख में ..
चीख रही है मेरी आबरू हर रात , किसी अपने के गैर स्पर्श से ..
सिहर उठती है मेरी हर एक रोम , हवस में लिपटे स्पर्श से ..
क्या !! सही है ये कुप्रथा , इस स्वालम्वी समाज के दामन पर ..
आखिर तब तक बिकेगी ये बचपन , इस आत्मनिर्भर समाज के समापन पर ..
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