साल खत्म होने से पहले,
और सब कुछ खत्म होने के बाद...
मैं क्या ऐसा लिखूं...
कि सब ठहर जाए।
तेरी बातें लिखूं?
या बातों में छिपा वो फ़रेब लिखूं,
जो सही हो कर भी...
मेरे ही भरोसे को फ़रेबी जताते हैं...!
या, तेरी सांसे लिखूं?
जो पहले कितनी गर्म होती थी,
लेकिन, अब उन्हीं सांसो में...
सर्द मौसम भी ठिठुर जाता है...!
या लिखूं फिर इनसे जुड़ी,
वो मौसम, वो दिन, वो रातें...
वो शरारतें, हरारतें, शिकायतें...
या... फिर मैं लिखूं,
अपनी किस्मत?
जिसे तुमने बदलने के लिए,
अपनी किस्मत पर,
नीयत का नक़ाब चढ़ा लिया है...
बताओ मैं ऐसा क्या लिखूं?
सिर्फ़ तुम्हारा नाम लिखूं?
या अपने नाम के ठीक बगल में
तुम्हारा भी नाम लिखूं?
बताओ न, ऐसा क्या लिखूं...
या, फिर कुछ भी न लिखूं?
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