जब भी गिरा हूँ जोरों से गिरा हूँ,
उठा हूँ और फिर संभलकर चला हूँ।
चोटें खाई हैं हजारों अंदरूनी और बाहरी,
दर्द-ए-निहाँ लिए जिंदगी का पहाड़ चढ़ा हूँ।
खेल खेले हैं खतरनाख से खतरनाख,
अमूमन खौफनाख मंजर से लड़ा हूँ।
कहानी छोटी जरूर है मेरी, मगर झूठी नहीं
कोई-कोई है यहाँ तक पहुँच पाता जहाँ आज मैं खड़ा हूँ।
अटकलें मत लगाओ तुम के मैं हूँ मुर्दा जिस्म,
मैं हूँ मुक़र्रर वक़्त तुम सब पे भारी पड़ा हूँ।
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