कभी बस एक चौथाई सी तो कभी आधी अधूरी सी खुद में खोयी खोयी सी कभी पूर्णतः की सीमा सी तो कभी सर्वांग संपूर्ण सी अस्तित्व में खिली हुयी सी कभी शब्दो की परिभाषा सी कभी व्यक्तित्व में विलीन सी खुद के हर पहलू से मैं वाकिफ़ सी चाँद की तरह मैं भी बढ़ती घटती सी।