कैसे बयाँ करें हम,
"विरह" की ये वेदना.......
भाए ना जिसमे,
किसी की भी संवेदना.......
नख से शिखर तक लबालब,
पानी से भरे ऐ बदरा.........
करले खुद पर गर्व,
कितना भी तू क्यूँ ना.......
लेकिन विरह मे बहे ,
एक आँसू में जो ठंडक है......
वह पूरे सावन के,
मेघों में भी मिलकर है कहाँ.....
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