कविता - 'कुछ मैं ही अनजान था '
तन भी दिया मुझको मन भी दिया ,
खुशी के साथ गम भी दिया ।
हृदय में मेरे , सभी का सम्मान था ,
पर थोड़ा मैं ही अनजान था ।
कुछ मैं ही अनजान था .............
विधाता के ऱज़ चरणों की , पूँजी बना लूँ ,
मेरे हृदय के ताले की , कुँजी बना लूँ ।
उठते है मेरे स्वर, गूँज उठता है सारा जहाँ ,
तारे भी टिमटिमाते है,और देखता है आसमाँ ।
ये मेरी संगीतमयी अस्थियों का बान था ,
पर थोड़ा मैं ही अनजान था ।
कुछ मैं ही अनजान ही था .................
हृदय के दरवाज़े पर, उसका ताज बना लूँ ,
मेरी दिग्दृष्टि का आगाज़ बना लूँ ।
हो जाएगी आज़ाद मेरी समस्त इन्द्रियाँ ,
यही मेरे मन का फरमान था ।
पर थोड़ा मैं ही अनजान था ,
कुछ मैं ही अनजान था .................
- विकास बिश्नोई
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