दिलावरी देखूं उसकी या देखूं उसकी मासूमियत... हर अदा अलहदा है उसकी,जगजाहिर है उसकी मकबूलियत... उसके हुस्ने सुलूक की कायल हूं मैं इस कदर... क्यों जाऊं मैं हर और दैर मुझे दिखती है उसमें रब्बानियत....
कुदरत का , ये कमाल कैसा । ज़ुल्म-ए-इंसानियत , सहने का हुनर ऐसा । बिना , ऊफ़ के कुर्बान हो जाती । ये , रहनुमाई बख्शीश ख़ुदा की । ज़मीन से जुड़े रहे , पूरी फिज़ा को संभाले ।
रंजिशों की आग मे यूं जल रहा जहान... कौन है हिंदू यहां, कौन है मुसलमान... जाने क्यों हर और दैर की मैं नहीं काइल... अक्ले-फ़ित्नापरवर से पहले, बने ज़ाहिद इन्सान...
अफजल की अजल का यूँ मातम मना रहे है... वतने-शुग़ल हो जैसे, ये जता रहे है... अज़्बीयत तो देखिए जरा इन गद्दारों की... शहीदों की शहादत पर ये गंगा नहा रहें हैं...
जानती हूँ अब्नाए-ज़माना हैं सारे के सारे... देशद्रोही की मौत पर लगा रहे हैं इंकलाब के नारे... अज़कार रफ़्त: हैं मेरी नजर मे ये हत्यारे... जो सितम-ईज़ाद की मौत को शहादत बता रहे हैं...
अब तो अज्मते-ख़ाके-वतन बचानी होगी... अज़्मे-सरफ़रोशी अब हमकों ही दिखानी होगीं... सरफ़रोशाने वतन की बाईमाए-हमीयत के लिए... इन गद्दारों की हस्ती हम ही मिटा रहे हैं...
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